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श्रीमाताजी के लिये किये गये कर्म के द्वारा साधना
साधना और माताजी के लिये कार्य
यदि माताजी पर समुचित रूप से मन को एकाग्र करके उनके लिये कार्य किया जाये तो वह भी ध्यान और आंतरिक अनुभूतियों के समान ही साधना है ।
* जो लोग पूरी सच्चाई के साथ माताजी के लिये काय करते हैं वे स्वयं कार्य के द्वारा ही समुचित चेतना प्राप्त करने के लिये तैयार किये जाते हैं, भले ही वे ध्यान करने के लिये न बैठे अथवा योग का कोई विशेष अभ्यास न करें । तुम्हें यह बताने की आवश्यकता नहीं कि ध्यान कैसे किया जाता है; अगर तुम अपने कर्म में और सब समय सच्चे बने रहो और अपने- आपको माताजी के प्रति खोले रखो तो जो कुछ आवश्यक है वह अपने- आप ही आयेगा ।
पूर्णयोग में कर्म की आवश्यकता
अनुभूतियां प्राप्त करने के लिये पूर्ण रूप से भीतर चले जाने और कर्म की, बाहरी चेतना की उपेक्षा करने का अर्थ है समतोलता खो बैठना, साधना में एकमुखी हो जाना -क्योंकि हमारा योग सर्वांगपूर्ण है; इसी तरह अपने- आपको बाहर की ओर फेंक देना और केवल बाहरी सत्ता में रहना भी समतोलता खो बैठना है; साधना में एकमुखी हो जाना है । साधक को आंतर अनुभूति और बाह्य कर्म दोनों में एक ही चेतना बनाये रखनी चाहिये तथा दोनों को माताजी से भर देना चाहिये । जबतक मनुष्य का मन खूब मजबूत न हो तबतक अपना सारा समय या समय का अधिकांश ध्यान में व्यतीत करना अच्छा नहीं -क्योंकि ऐसा करने से मनुष्य को पूर्ण रूप से आंतर जगत् में रहने और बाहरी त्यों से संस्पर्श खो बैठने की आदत पड जाती है -इससे एकपक्षीय सामंजस्यहीन गति उत्पन्न * जबतक मनुष्य का मन खूब मजबूत न हो तबतक अपना सारा समय या समय का अधिकांश ध्यान में अतीत करना अच्छा नहिं-क्योंकि ऐसा करने से मनुष्य को रुप से आंतर जगत् में रहने और बहरी तथ्यों से संस्पर्श खो बैठने की आदत पड जाति है -इससे एकपक्षीय सामंजस्यहीन गति उत पत्र १७५ होती है और यह समतोलता भंग कर सकती है । ध्यान और कर्म दोनों करना तथा दोनों को माताजी को अर्पित कर देना ही सबसे उत्तम बात है । ६ - ८ - ११३३ *
हमारा अनुभव यह नहीं है कि केवल ध्यान के द्वारा प्रकृति को रूपांतरित करना संभव है, और न बाहरी क्रिया-कलाप और कर्म से अलग हो जाने पर उन लोगों को विशेष लाभ ही हुआ है जिन्होंने इसका परीक्षण किया है; बहुत से लोगों के लिये यह हानिकारक भी हुआ है । कुछ अंश में मन को एकाग्र करने, हृदय में आंतरिक अभीप्सा रखने तथा वहां माताजी की उपस्थिति की ओर और ऊपर से आनेवाले अवतरण की ओर चेतना को खोले रखने की आवश्यकता है । परंतु बिना किसी क्रिया के । बिना किसी कर्म के वास्तव में प्रकृति में परिवर्तन नहीं होता; काम में और मनुष्यों के साथ संपर्क होने पर ही प्रकृति के परिवर्तन का परीक्षण होता है । जो काम मनुष्य करता है उनमें न तो कोई ऊंचा है, न कोई नीचा; सभी कर्म एक जैसे हैं बशते कि वे माताजी को अर्पित हों और उनके लिये तथा उनकी शक्ति के द्वारा किये गये हों । ६ - १० - ११३४ *
यह तब होता है जब कि कर्म बराबर माताजी के चिन्तन के साथ संयुक्त होता है । यह पुकार रखते हुए कि माताजी तुम्हारे द्वारा उसे करें, उनकी पूजा के रूप में किया जाता है । अहंकार की सभी भावनाएं, कर्म के साथ लगे हुए सभी अहंजन्य हृद्गगत भाव अवश्य दूर होने चाहियें । फिर साधक श्रीमां की शक्ति को कार्य करते हुए अनुभव करना आरंभ करता है; कम के पीछे विद्यमान एक विशिष्ट आंतर मनोभाव के द्वारा चैत्य पुरुष वर्धित होता है और आधार भीतर से आनेवाली चैत्य संबोधी तथा प्रभाव एवं ऊपर से होनेवाले अवतरण दोनों के प्रति उद्घाटित हो जाता है । उस समय स्वयं कम के द्वारा ही ध्यान का फल भी प्राप्त हो सकता है । * 'श ' कहता हे कि वह काम के समय आपकी उपस्थिति उस प्रकार नहीं अनुभव कर पाता जिस प्राकार ध्यान के समय /उसे समज्ञ में नहिं आता २७६ कि कैसे कर्म उसके लिए सहायक हो सकता है / उसे अपने कार्य को अर्पित करना तथा उसके द्वारा माताजी को शक्ति को कार्य करते हुए अनुभव करना सीखना है । निरे बैठे-बैठे प्राप्त किया हुआ आत्मगत साक्षात्कार केवल अर्ध-साक्षात्कार है । २३ - १ - ११३४ * माताजी ऐसा नहीं समझतीं कि समस्त कम का त्याग कर देना तथा केवल पढ़ना और ध्यान करना अच्छा है । कर्म भी योग का अंग है और यह प्राण तथा उसकी क्रियाओं के अंदर भागवत उपस्थिति, ज्योति और शक्ति को उतार लाने का सबसे उत्तम सुयोग प्रदान करता है; यह आत्मसमर्पण के क्षेत्र और सुअवसर को भी बढ़ाता है । यह स्मरण रखना ही काफी नहीं है कि कर्म माताजी का है- और उसके परिणाम भी; तुम्हें अपने पीछे माताजी की शक्ति को अनुभव करना और उनकी अंतः प्रेरणा तथा पथ-प्रदर्शन की ओर खुले रहना भी सीखना चाहिये । सदा मन के प्रयास के द्वारा स्मरण करना अत्यंत कठिन है; अगर तुम उस चेतना में चले जाओ जिसमें तुम सर्वदा माताजी की शक्ति को अपने अंदर या अपने को सहारा देते हुए अनुभव करो तो बस वही सच्ची चीज है । तुमने बीमा कम्पनी के विषय में जैसी निश्चित सलाह मांगी है । वैसी सलाह साधारणतया माताजी नहीं दिया करती । तुम्हें अपने मन की नीरवता में सच्ची अंतः प्रेरणा पाना सीखना चाहिये । १८-८-१९३२ *
जो लोग शांति और ' समता ' मैं निवास करते हैं पर माताजी के लिए कोई काम करते हैं, क्या बे रूपांतर प्राप्त करते हैं?
नहीं, वे बिलकुल रूपांतरित नहीं होते । ७-५-१९३३ १७७ श्री माताजी की शक्ति के साथ एकत्व प्राप्त करने की दो अवस्थाएं
इस बात का बोध होना कि हम जो कुछ करते हैं वह सब भगवान् से आया है । समस्त कर्म ही श्रीमां के हैं । अनुभूति का एक आवश्यक कदम है, पर हम उसीमें बने नहिं रह सकते -हमें उससे भी आगे जाना होगा । वे ही लोग इसमें बने रह सकते हैं जो प्रकृति को बदलना नहीं चाहते, बल्कि उसके पीछे विद्यमान सत्य का केवल अनुभव प्राप्त करना चाहते हैं । तुम्हारा कर्म विश्व प्रकृति के अनुसार होता है और फिर साथ ही तुम्हारी व्यक्तिगत प्रकृति के अनुसार । समस्त प्रकृति एक शक्ति है जिसे भगवती माता ने विश्व के कार्य के लिये बाहर निकाल रखा है । अभी जैसी स्थिति है उसमें यह अज्ञान और अहंकार का एक कार्य है; परंतु हम चाहते हैं ऐसा कर्म जो भागवत सत्य का हो और अज्ञान तथा अहंकार द्वारा आच्छादित और विकृत न हो. । अतएव जब तुम यह अनुभव करते हो कि तुम्हारे सभी कर्म माताजी की शक्ति के द्वारा किये जा रहे हैं, तब यह सच्ची अनुभूति है । परंतु माताजी की इच्छा यह है कि जो कुछ तुम करो वह केवल प्रकृति के अंदर विद्यमान उनकी शक्ति के द्वारा नहीं होना चाहिये जैसा कि अभी हो रहा है, बल्कि उनकी प्रकृति के, दिव्य सत्य में विद्यमान उनकी निजी सीधी शक्ति के, उच्चतर दिव्य प्रकृति के द्वारा होना चाहिये । अतएव यह भी ठीक था । जैसा कि तुमने पीछे सोचा, कि जबतक यह परिवर्तन नहीं आ जाता, तबतक यह अनुभव ध रूप से सच्चा नहीं हो सकता कि जो कुछ भी तुम करते हो वह उनकी ही इच्छा से हो रहा है इसलिये तबतक यह स्थायी नहीं होगा । क्योंकि, अगर यह अभी स्थायी हो तो यह तुम्हें निम्नतर कर्म में ही बनाये रखेगा जैसा कि यह बहुतों को बनाये रखता हे और परिवतंन को रोक देगा या उसके होने में देर लगायेगा । अभी स्थायी अनुभूति के रूप में जिस चीज की तुम्हें आवश्यकता है वह यह है कि श्रीमां की शक्ति तुम्हारे अंदर सभी चीजों में इस अज्ञानपूर्ण चेतना और प्रकृति को अपनी दिव्य चेतना और प्रकृति में पलट देने के लिये कार्य कर रही हे ।
यही बात यन्त्र होने के सत्य के विषय में भी कही जा सकती है । यह ठीक है कि प्रत्येक चीज विश्वशक्ति का यंत्र है और इसलिये श्रीमां का भी यंत्र है । पर साधना का लक्ष्य हे अचेतन और परिणामत: अपूर्ण यंत्र होने के बदले सचेतन और पूर्ण यंत्र बनना । हम केवलतभसचेतन और पूर्ण यंत्र बन सकते हैं जब कि निम्न ' के अज्ञनपूण धक्के के वशवर्ती होकर कार्य न
करें बल्कि श्रीमां को आत्मसमर्पण करके तथा हमारे अंदर कार्य करनेवाली उनकी उच्चतर शक्ति का ज्ञान रखते हुए कार्य करें । अतएव इस विषय में भी तुम्हारा अंतज्ञान पूर्ण रूप से ठीक था । पर यह सब एक दिन में ही नहीं किया जा सकता । अतएव इसके लिये उत्सुक या बेचैन न होने में तुम एक बार फिर ठीक ही उतरे । माताजी की शक्ति कार्य करेगी और अपने निजी समय पर परिणाम उत्पन्न करेगी, बशर्ते कि हम सब कुछ उन्हें अर्पित कर दें, अभीप्सा करें तथा सजग रहें, सब समय उन्हें स्मरण करते और पुकारते रहें, तथा उनकी रूपान्तरकारी शक्ति के कार्य के मार्ग में जो कुछ आ खड़ा हो उसका चुपचाप त्याग करते रहें । इस बात के विषय में तुम्हारी दूसरी राय पहली की अपेक्षा कहीं अधिक समुचित दृष्टिकोण से आयी थी । यह कहना कि '' वास्तव में देखा जाये तो कार्य करना मेरा काम नहीं है, अतएव मुझे चिता करने की आवश्यकता नहीं,'' बहुत अधिक कहना है -जहांतक हमें अभीप्सा करना, अपने- आपको अर्पित करना, श्रीमां की क्रिया को स्वीकृति देना, अन्य सभी चीजों का त्याग करना तथा अधिकाधिक आत्मसमर्पण करना है वहांतक तो हमें करना ही है । बाकी चीजों यथासमय कर दी जायेंगी, चिंतित या अवसन्न या अधीर होने की कोई आवश्यकता नहीं । १३ - ७ -१ १३५ *
सबसे. पहले हमें अपनी इच्छा को श्रीमां की इच्छा के साथ युक्त कर देना चाहिये और यह समझना चाहिये कि यह केवल यंत्र है और वास्तव में इसके पीछे विद्यमान केवल श्रीमां की इच्छा ही फल प्रदान कर सकती है । उसके बाद जब हम अपने भीतर कार्य करनेवाली श्रीमाताजी की शक्ति के विषय में पूर्ण रूप से सचेतन हो जाते हैं तब व्यक्तिगत इच्छा का स्थान भागवत इच्छा ले लेती है । १५ - ७ - ११३५ *
केवल एक साधारण मनोभाव ही नहीं होना चाहिये, बल्कि प्रत्येक कम माताजी को अर्पित होना चाहिये जिसमें कि वह मनोभाव सब समय सजीव बना रहे । काम के समय ध्यान नहिं होना चाहिये, क्योंकि वह हमारे ध्यान को कर्म से १७९ हटा देगा; परंतु जिन 'एक ' को तुम अपना कर्म अर्पित करते हो उनका सतत स्मरण अवश्य बना रहना चाहिये । यह केवल प्राथमिक प्रक्रिया है; क्योंकि जब तुम निरंतर अपने भीतर एक शांत सत्ता का बोध बनाये रख सकोगे, भागवत सान्निध्य के बोध में एकाग्र हुए. रहोगे और उसके साथ ही साथ ऊपरी मन काम करता रहेगा, अथवा जब बराबर यह अनुभव करना आरंभ करोगे कि श्रीमां की शक्ति ही कार्य कर रही है और तुम केवल एक प्रणाली या यंत्र हो, तब स्मरण के स्थान पर कर्म में योग की, दिव्य एकत्व की एक सहज-स्वाभाविक सतत अनुभूति आरंभ हो जायेगी । *
प्रत्येक व्यक्ति माताजी के अंदर है, परंतु सबको इस विषय में -केवल कम के विषय में ही नहीं -सचेतन होना चाहिये । १ - ४ - १९३५ * क्या यह सच है कि व्यक्ति को अनुभव करना चाहिये कि भागवत उपस्थिति ही उसे चलाती है और उसके लिये सब कुछ करती है? क्या भगवती माता के साथ एकत्व प्राप्त किये बिना उसे ( उपस्थिति को) अनुभव करना संभव है?
नहीं, यह अनुभव करना कि भागवत उपस्थिति तुम्हारे ऊपर या अंदर है और तुम्हें चला रही है, अपने- आपमें माताजी के साथ एकत्व ही है । १४ - ७ -१९ ३३ *
आज मुझे लगा मानों मुझसे मित्र कोई और मेरे कार्य कर रहा हो निःसंदेह मैं वहां था पर पृष्ठभूमि में । क्या वह माताजी की शक्ति गई नहीं थी जो मुझे समग्र रूप से अपने अंदर ले लेने का यत्न कर रही थी?
ऐसा कहना अत्युक्तिपूर्ण है । जो तुमने कहा है उसका अर्थ इतना ही है कि तुम्हें सभी क्यों के पीछे अवस्थित वैश्व शक्ति की कोई झांकी मिली । २-६-११३४2
* १८० अपने संकल्प को माताजी के साथ एक कैसे किया जा सकता है?
अपनी चेतना को माताजी की चेतना के साथ सतत सम्पर्क में रखकर अपनी इच्छाशक्ति को माताजी की इच्छाशक्ति के साथ एक किया जा सकता है । २४ - ६- ११३३ *
माताजी की चेतना के साथ '' अपनी चेतना का सतत संपर्क स्थापित करने '' से आपका क्या मतलब है जिसके विषय में आपने कहा है कि वह उनकी इच्छाशक्ति के साथ एकत्व के लिये आवश्यक हे7 उसका मतलब मानसिक संपर्क से है या आंतरात्मिक से?
उसका तात्पर्य उस संपूर्ण संपर्क से है जिसका आधार हो चैत्य (आंतरात्मिक) संपर्क । २५ - ६- १९३३ * मेरा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण दर्शाता है कि माताजी को अपने अंदर सहज- स्वाभाविक रूप से काम करने देना हम साधकों के लिये सदा संभव नहीं होता क्योंकि प्रायः ही हमारे अंदर की कोई चीज उनसे किनारा करती है और उनके प्रवेश के सभी द्वार बंद कर देती है मैं समझता हूं सर्वोत्तम मार्ग होगा अपनी संकल्पशक्ति का विकास करना इग्जससे कि कोई चीज द्वारों को फिर से खोलने में हमारी सहायता करने के लिये वहां सदा उपस्थित रहे मेरा मतलब यहां प्राणिक या मानसिक ढंग के संकल्प से नहीं बल्कि सच्ची संकल्प-शक्ति से है क्या आप कृपा करके इस विषय पर प्रकाश डालेंगे कि उसे कैसे विकसित किया जाये?
उसे विकसित करने के मार्ग हैं (१ ) पीछे की ओर स्थित उस सचेतन शक्ति से सज्ञान होना जो मन आदि का प्रयोग करती है । (२ ) अभ्यास के द्वारा उस शक्ति को उसके लक्ष्य की ओर परिचालित करना सीखना । मैं नहीं समझता १८१ कि तुम इन दोनों उपायों में से किसी का भी तुरंत अनुसरण करना आसान पाओगे -सर्वप्रथम तुम्हें आंतरिक चेतना में पहले की अपेक्षा अधिक गहरे निवास करना सीखना होगा । १६ - ७- ११३४
माताजी की इच्छा का अनुसरण करने की शर्ते
माताजी की इच्छा का अनुसरण करने के लिये शर्ते हैं उनकी ओर ज्योति, सत्य और शक्ति के लिये मुड़ना और यह अभीप्सा करना कि कोई भी दूसरी शक्ति तुमपर प्रभाव न डाले या तुम्हें पथ न दिखाये, प्राण के अंदर कोई मांग न करना या कोई शर्त न रखना, सत्य को ग्रहण करने के लिये तैयार एक स्थिर मन बनाये रखना, पर उसीकी अपनी भावनाओं और रचानाओं पर आग्रह न करना, - अंत में, चैत्य पुरुष को जाग्रत् और सामने की ओर रखना जिससे कि तुम निरंतर एक संपर्क बनाये रख सको और सचमुच जान सको कि उनकी इच्छा क्या है । क्योंकि मन और प्राण भूल से अन्य प्रेरणाओं और सुझावों को भगवान् की इच्छा मान सकते हैं, पर चैत्य पुरुष जब एक बार जग जाता है तब वह कभी भूल नहीं करता । अतिमानसिक रूपांतर होने के बाद ही आ पूर्णता प्राप्त करना संभव होता हे; पर अपेक्षाकृत कुछ अच्छी क्रिया का होना निम्नतर स्तरों पर भी संभव है अगर कोई भगवान् के साथ संस्पर्श बनाये रखे और अपने मन, प्राण और शरीर में सावधान, जाग्रत् और सचेतन रहे । इसके अतिरिक्त, यह एक ऐसी अवस्था है जो तैयारी करनेवाली है और परम मुक्ति के लिये प्रायः अनिवार्य है ।
दिव्य जीवन का आधार
पूर्ण रूप से सच्चा होने का मतलब है एकमात्र दिव्य सत्य की कामना करना, भगवती माता को अधिकाधिक आत्मसमर्पण करना, इस एक अभीप्सा से भिन्न अन्य सभी व्यक्तिगत मांगों और कामनाओं का त्याग करना, जीवन के प्रत्येक कर्म को श्री भगवान् के चरणों में उत्सर्ग कर देना और कर्म को भगवहत्त कर्म समझकर करना तथा उसमें अहंकार को न आने देना । यही दिव्य जीवन का आधार है । १८२ कोई भी आदमी तुरत ऐसा नहीं बन सकता; पर । कोई यदि बराबर अभीप्सा करे और सच्चे हृदय तथा सत्य-संकल्प के साथ निरंतर भागवत शक्ति की सहायता की पुकार करे तो वह अधिकाधिक इस चेतना में वर्धित होगा |
कर्मयोग की सच्ची चेतना
उसे अपना कार्य करते रहना चाहिये और समुचित चेतना में रहकर अन्य सभी चीजों को करना चाहिये, वह जो कुछ भी करे उसे माताजी को समर्पित करना चाहिये और उनके साथ अपना आंतर संस्पर्श बनाये रखना चाहिये । इस भाव के साथ और इस चेतना में रहकर किये गये सभी कर्म कर्मयोग बन जाते हैं और उसकी साधना का अंग माने जा सकते हैं । * कम में जो कुछ तुमने पाया और बनाये रखा वह वास्तव में कर्मयोग की सच्ची और मौलिक चेतना है -ऊपर से सहारा देती हुई शांत-स्थिर चेतना और ऊपर से कार्य करती हुई शक्ति तथा उसके साथ भक्ति जो यह अनुभव करती है कि यह माताजी की चेतना ही है जो उपस्थित और क्रियाशील है । अब तुम अनुभव द्वारा जान गये हो कि कर्मयोग का रहस्य क्या है । १५ - १ - ११३६
कर्म में समुचित मनोभाव
केवल अपनी आंतरिक एकाग्रता में ही नहीं, बल्कि अपने बाह्य कार्य और गतिविधियों में भी तुम्हें यथार्थ मनोभाव ग्रहण करना चाहिये । अगर तुम ऐसा करो और प्रत्येक चीज को माताजी के पथप्रदर्शन में छोड़ दो तो तुम देखोगे कि कठिनाइयां कम हो रही हैं और उन्हें बहुत अधिक आसानी से पार किया जा रहा है तथा सभी बातें धीरे -धीरे आसान होती जा रही हैं । अपनी क्रिया तथा अपने कर्मी में तुम्हें ठीक वही करना चाहिये जो तुम ध्यान में करते हो । श्रीमां की ओर उद्घाटित होओ, उन्हें श्रीमां के पथप्रदर्शन में छोड़ दो, शांति, सहारा देनेवाली शक्ति और संरक्षण को पुकारो तथा, '? कि वे कार्य कर सकें उन सभी प्रभावों का त्याग करो जो १८३ विपरीत, असावधान या अचेतन गतियां उत्पन्न करके उनके रास्ते में बाधा खड़ी कर सकते हैं । इस सिद्धांत का अनुसरण करो और तुम्हारी सारी सत्ता शांति के अंदर तथा आश्रयदात्री दिव्य शक्ति और ज्योति के अंदर एक - अविभक्त सत्ता - बन जायेगी, एक शासन के अधीन हो जायेगी । * तुम्हारे लिये बस सत्य यही है कि तुम भगवान् को अपने अंदर अनुभव करो, माताजी की ओर उद्घाटित होओ और तबतक भगवान् के लिये काय करते रहो जबतक तुम अपने सभी कार्य में भगवती माता को अनुभव न करने लगो । यह चेतना रहनी ही चाहिये कि तुम्हारे हृदय में भागवत उपस्थिति विद्यमान है और तुम्हारे कार्य में भागवत पथप्रदर्शन प्राप्त हो रहा है । यदि चैत्य पुरुष पूर्ण ? रूप से जाग्रत् हो तो वह इसे सहज ही, तेजी से और गहराई के साथ अनुभव कर सकता है; और यदि चैत्य पुरुष एक बार इसे अनुभव कर ले तो यह फिर मनोमय और प्राणमय स्तरों में भी फैला सकता है । * मांगें पेश नहीं करनी चाहियें; तुम माताजी से जो कुछ अपने- आप पाते हो वह तुम्हें सहायता करता है; जो कुछ तुम मांगते हो या माताजी पर लादने की चेष्टा करते हो वह उनकी शक्ति से खाली होगा ही । माताजी प्रत्येक व्यक्ति के साथ उसकी सच्ची आवश्यकता (वह स्वयं अपनी कल्पना के अनुसार जिसे आवश्यकता मान ले वह नहीं) । साधना में उसकी प्रगति और उसकी प्रकृति के अनुसार अलग- अलग रूप में व्यवहार करती हैं । तुम्हें जो शक्ति पाने की आवश्यकता है उसे प्राप्त करने का तुम्हारे लिये सबसे अधिक फलदायी मार्ग है सचेतन और सावधान होकर काम करना, ठीक- ठीक उसे संपन्न करने में किसी चीज को बाधा न डालने देना । अगर तुम ऐसा करो और उसके साथ ही साथ अपने कर्म में माताजी की ओर खुले रहो तो तुम अधिक सतत रूप में कृपा ग्रहण करने लगोगे और उनकी शक्ति को अपने द्वारा काम करते हुए अनुभव करने लगोगे; और इस तरह सर्वदा उनकी उपस्थिति को अनुभव करते हुए निवास करने में समर्थ होगे । इसके विरुद्ध, यदि तुम अपनी मनमौजों या कामनाओं को अपने कार्य में हस्तक्षेप करने दो अथवा असावधान १८४ रहो और उपेक्षा करो तो तुम उनकी कृपाशक्ति के प्रवाह को बाधा पहुंचाओगे और अपने अंदर उदासी, बेचैनी तथा अन्य विजातीय शक्तियों के घुस आने के लिये अवकाश प्रदान करोगे । इस साधना की धारा में प्रवेश करने के लिये कर्म के द्वारा योग करना सबसे आसान और अत्यंत फलप्रद मार्ग है । ८ - ३ - ११३० *
अगर अक्षमता । तामसिकता और निष्कियता को स्वीकार किया जाये तो अत्यंत विशुद्ध भौतिक और यांत्रिक कार्य भी समुचित ढंग से नहीं किया जा सकता । इलाज यह नहीं है कि तुम अपने को यंत्रवत् होनेवाले कार्य में आबद्ध कर दो । बल्कि यह है कि तुम अक्षमता, निष्कियता और तामसिकता का त्याग करो और उन्हें दूर फेंक दो तथा माताजी की शक्ति की ओर अपने को खोल दो । अगर मिथ्याभिमान । महत्त्वकांक्षी और आत्मप्रतारणा तुम्हारे रास्ते में आ खड़ी हों तो उन्हें अपने से दूर फेंक दो । अगर तुम उनके विलुप्त होने के लिये महज राह देखते रहो तो उन सब चीजों से छुटकारा नहीं पाओगे । अगर तुम चीजों के घटित होने की प्रतीक्षा ही करो तो फिर कोई कारण नहीं कि वे बिलकुल ही घटित हों । अगर अक्षमता और दुर्बलता ही बाधा डालती हों तो भी, जैसे- जैसे मनुष्य सच्चे रूप में और अधिकाधिक श्रीमां की शक्ति की ओर खुलता जायेगा, वैसे-वैसे उसे काम के लिये आवश्यक शक्ति-सामर्थ्य और क्षमता मिलती रहेगी और वे आधार में बढ़ती रहेंगी । * सच्ची चेतना में रहने का लाभ यह है कि तुम्हें सच्ची चेतना प्राप्त होती है और उसके संकल्प के श्रीमां के संकल्प के साथ सुसमंजस होने के कारण तुम परिवर्तन लाने के लिये श्रीमां की शक्ति को पुकार सकते हो । जो लोग मन और प्राण में निवास करते हैं वे यह करने में उतने समर्थ नहीं होते; उन्हें अधिकांश में अपने व्यक्तिगत प्रयास का उपयोग करने के लिये बाध्य होना पड़ता है और चूंकि मन और प्राण की जानकारी, संकल्प और शक्ति विभक्त और अपूर्ण होती हैं, उनके द्वारा किया हुआ कार्य भी अपूर्ण होता है और अंतिम नहीं होता । केवल अतिमानस में ही ज्ञान, संकल्प और शक्ति सर्वदा एक अभिन्न गति होती है और स्वभावत: ही फलप्रद होती है । * १८५ काम के समय मैं बराबर ही माताजी के संस्पर्श में रहता है मुझे केवल उनकी याद ही नहीं रहती बल्कि काम के अंदर उनके साथ संपर्क बना रहता है । उनकी शक्ति निरंतर आधार में बहती रहती है और कार्य अपने- आप संपन्न होता है? पर होता है तेज से, पूर्ण रूप से बिना किसी हिचकिचाहट के -बिना किसी व्यक्तिगत दुश्चिंता और उत्तरदयित्व के; बल्कि उनके स्थान पर अब पूरा विश्वास निश्चयता शक्ति और अचंचलता विद्यमान हैं मैं समझता हूं कि यदि मैं इस मनोभाव के साथ कार्य कर सकृं तो वह पूर्ण निर्दोष और माताजी के बच्चे का कार्य बन जायेगा एक अहंकारपूर्ण मनुष्य का नहीं कृपया मुझे बताइये कि मेरी बात ठीक है या नहीं
हां, यह बहुत अच्छी प्रगति है और कर्म के लिये दिव्य शक्ति का ठीक-ठीक उपयोग करने का पहला कदम है । * '' योग- समन्वय '' और '' मातृवाणी '' दोनों में मैंने पड़ा है कि प्रत्येक कार्य चेष्टा विचार और शब्द अर्पण- रूप होना चाहिये चाहे यह कठोर रूप से मानसिक प्रयत्न ही हो जिसमें हृदय की भक्ति न हो जैसा कि यह शुरू- शुरू में हो सकता है, फिर भी यदि प्रयत्न सच्चा हो तो वह निश्चित रूप से भक्ति की ओर ले जायेगा भ्रमण या भोजन- जैसे थोड़े- बहुत यांत्रिक ढंग के कार्यों में यह अनुशासन सर्वथा संभव है पर जहां कार्य में मानसिक एकाग्रता की आवश्यकता होती हे जैसे पढ़ने- लिखने में वहां यह लगभग असंभव ही प्रतीत होता है/यदि चेतना को स्मरण में लगे रहना पड़े तो ध्यान बट जायेगा और काम ठीक ढंग से संपत्र नहिं होगा / इसका कारण यह है कि लोग ऊपरी मन में निवास करते हैं और उसी के साथ एक हुए रहते हैं । जब कोई अधिक भीतर निवास करता है तो केवल उपरितलीय चेतना ही कार्यव्यस्त रहती है और व्यक्ति उसके पीछे एक अन्य, निश्चल- नीरव और समर्पित चेतना में स्थित रहता है । * १८६ क्या यह चेतना केवल अभीप्सा से आती है अथव क्या इसे व्यक्ति एक मानसिक अनुशासन का अनुसरण करके प्राप्त कर सकता हे?
व्यक्ति आरंभ तो मानसिक प्रयत्न से ही करता है । आगे चलकर एक आंतर चेतना गठित हो जाती है जिसके लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह सदा माताजी का चिंतन कर रही हो । * कार्य को माताजी के प्रति अर्पित करने के दो तरीके हे : एक है माताजी के चरणों में कार्य को उसी तरह भेंट करना जिस तरह कोई फूल चढ़ाता है; दूसरा है अपने व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से पीछे खींच लेना और के अनुभव करना मानों व्यक्ति जो- जो भी कार्य करता है उन सबको के ही कर रही हों पहले तरीके में कार्य करनेवाले में और माताजी में द्वैत- भाव है; पर दूसरे में अंतरंग घनिष्ठता और एकत्व है/ इन दो तरिकों में से कौन- सा साधना के लिये अधिक अच्छा है?
यह पूछने की जरूरत ही नहीं कि कौन-सा अच्छा है, क्योंकि ये एक-दूसरे को बहिष्कृत नहीं करते । मन ही इन्हें परस्पर-विरोधी समझता है । चैत्य पुरुष कार्य को अर्पित कर सकता है जब कि प्रकृति ' शक्ति ' के प्रति प्रतिरोध-रहित बनी रहती है (क्योंकि अहंभाव मिट गया या पीछे हट गया होता है) और वह माताजी की शक्ति को कार्य करती हुई अनुभव करती है तथा अपने अंदर उनकी उपस्थिति को भी । ५ - ११ - ११३८ *
जब कोई कार्य करता है तो वह अभीप्सा करता है की उचित समय आने पर माताजी की शक्ति उसके कार्य को अपने हाथ में ले ले/ जब व्यक्ति काम न कर रहा हो तब उसे किस चीज की अभीप्सा करनी चाहिये?
उसे अभीप्सा करनी चाहिये कि माताजी की शक्ति क्रिया करके समुचित क्रमिक अवस्थाओं के द्वारा उच्चतर चेतना को नीचे उतार लाये । यह भी कि मेरा आधार अधिकाधिक योग्य -शांत निरहंकार और समर्पित बने । १८७ कर्म में आत्म्प्रभुत्ब की आवश्यकता
माताजी तुम्हारे पुस्तक लिखने के काम को नामंजूर नहीं करतीं -बस वे यह नहीं चाहतीं कि तुम उसमें इतना डूब जाओ कि और कुछ भी न कर सको । जो कुछ तुम करो उसपर तुम्हारा अधिकार होना चाहिये, उसके द्वारा तुम्हें अधिकृत नहीं होना चाहिये । वे पूरी तरह से सहमत हैं कि तुम, यदि संभव हो तो, पुस्तक को पूरा कर डालो और अपने जन्मदिन पर उसे समर्पित कर दो । परंतु तुम्हें उसमें बह नहीं जाना चाहिये -तुम्हें उच्चतर वस्तुओं के साथ पूरा- पूरा संस्पर्श बनाये रखना चाहिये । १ - ५ - ११३४
सर्वांगपूर्ण सेवा की शर्ते
हृदय पर से अहंकार की छाप को मिटा दो और उसके स्थान पर माताजी के प्रेम को आ जाने दो । अपने व्यक्तिगत विचारों और निर्णय के प्रति होनेवाले समस्त आग्रह को अपने मन से दूर फेंक दो, तभी तुम माताजी को समझने के लिये ज्ञान प्राप्त करोगे । अपनी ही इच्छा में मत्त मत होओ, अपने कार्य को अहंकार द्वारा चालित मत होने दो, व्यक्तिगत अधिकार के लिये लोलुपता मत रहने दो, व्यक्तिगत पसंद के प्रति आसक्ति मत रखो, फिर देखोगे कि श्रीमां की शक्ति स्पष्ट रूप में तुम्हारे अंदर कार्य करने में समर्थ होगी और जो अक्षय शक्ति तुम मांगते हो उसे प्राप्त करोगे और तुम्हारी सेवा भी पूर्ण होगी । २७ - ११ - ११४० *
हां, यह - अहंकार, क्रोध, व्यक्तिगत नापसंदगी, आत्माभिमानी वेदनशीलता इत्यादि पर विजय पाना - अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात है । कर्म केवल कम के लिये नहीं है, बल्कि वह निम्नतर व्यक्तित्व और उसकी प्रतिक्रियाओं से छुटकारा पाने तथा भगवान् के प्रति पूर्ण समर्पण साधित करने के लिये साधना का एक क्षेत्र है । स्वयं कर्म का जहांतक प्रश्न है, वह माताजी द्वारा निश्चित या स्वीकृत व्यवस्था के अनुसार ही किया जाना चाहिये । तुम्हें यह सर्वदा याद रखना चाहिये कि वह माताजी का काय है, तुम्हारा व्यक्तिगत कार्य नहीं है । २३ - ३ - ११३५ * १८८ जब कभी तुम्हारे सामने ये परिरिथतियां और अनुभव आयें, मैं पहले जो कुछ लिख चुका हूं सहज उसीको दुहरा सकता हूं । काम को छोड़ना कोई समाधान नहीं है -सच पूछो तो कर्म के द्वारा ही मनुष्य यौगिक आदर्श के विरोधी, अहंभाव के अनुभवों एवं गतिविधियों को पहचान सकता और धीरे - धीरे उनसे मुक्त हो सकता है । कर्म स्वयं अपने लिये नहीं बल्कि माताजी के लिये किया जाना चाहिये, -इसी तरह मनुष्य चैत्य पुरुष की वृद्धि को प्रोत्साहन देता है और अहं को पार करता है । इसकी पहचान है अभिमान या आग्रह या व्यक्तिगत रुचि या सम्मान की भावना के बिना माताजी का दिया हुआ काम करना - अहंकार, आत्मसम्मान या व्यक्तिगत पसंद को आघात पहुंचानेवाली किसी चीज से आहत न होना । कर्म के द्वारा जो आदर्श साधक के सामने रखा गया है वह ऊंचा और महान् है और उसे एकाएक प्राप्त करना संभव नहीं, पर धीरे -धीरे उसमें वर्धित होना संभव है यदि मनुष्य उस आदर्श को - भगवती माता के कार्य के लिये निःस्वार्थ और पूर्ण संयत यन्त्र बनने के आदर्श को -सदैव अपने सामने रखे | २८ - १ - १९३३
निर्वयक्तिक कार्यकर्ता
साधारणतया निवैयक्तिक होने का अथ है अहंकेन्द्रित न होना, चीजों का असर स्वयं तुमपर कैसे पड़ता है उसकी दृष्टि से उन्हें न देखना । बल्कि उनके अंदर जो चीजों हैं उन्हें देखना, निष्पक्ष होकर विचार करना, स्वयं अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण या अहंकारपूण लाभ या अहंजन्य भावना या बोध के द्वारा नहीं । वरन् चीजों के अभिप्राय के द्वारा या ' चीजों के परम प्रभु ' की इच्छा के द्वारा जिस बात की मांग की जाये उसे करना । कार्य में वही करना चाहिये जो कार्य के लिये सबसे उत्तम हो, अपने निजी सम्मान या सुविधा का ख्याल नहीं करना चाहिये, कार्य को स्वयं अपना नहिं बल्कि माताजी का समझना चाहिये, उसे नियम, अनुशासन, निर्वयक्तिक प्रबन्ध के अनुसार, यहांतक कि यदि अवस्थाएं सबसे उत्तम रूप में करने के लिये अनुकूल न हों तो उस समय की अवस्थाओं के अनुसार करना चाहिये । निर्वयक्तिक कार्यकर्ता अपने पूरे सामर्थ्य, उत्साह और श्रमशीलता को कम में लगा देता है, पर अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं, मिथ्याभिमान और आवेगों को नहीं लगाता । वह हमेशा एक ऐसी चीज को १८९ अपनी दृष्टि में रखता है जो उसके तुच्छ व्यक्तित्व से अधिक महान् है और उसके प्रति जो उसकी भक्ति या आज्ञानुवर्तिता है, वही उसके जीवन को परिचालित करती है । २१ - ६- १९३५ *
प्रत्येक '' आंतरिक संकेत '' को ऐसा मानना खतरनाक होगा कि वह मानों माताजी से आया हुआ कर्म का संकेत या प्रारम्भ हो । जो कुछ आंतरिक संकेत मालूम होता है वह कहीं से भी, अपने- आपको चरितार्थ करने की चेष्टा करनेवाली किसी भी अच्छी या बुरी शक्ति से आ सकता है । चाहे कर्म स्वयं माताजी से ही क्यों न आया हो फिर भी उसके विषय में साधक में अहंकार रह सकता है । यन्त्र होने का अहंकार ऐसी चीजों में से एक है जिनमे योग में विशेष रूप से सावधान रहना चाहिये । जब मनुष्य काम करता है तब साधारणतया काम करनेवाली शक्ति का प्रको और उसे करने तथा उसे पूरा कर डालने की धुन या उसे करने का सुख पर्याप्त मात्रा में होता है और मन अन्य किसी चीज का चिंतन नहीं करता । उसके बाद '' इसे मैंने किया '' का बोध आ उपस्थित होता है । परंतु कुछ लोगों में स्वयं काम करते हुए भी अहंकार सक्रिय रहता है । ३ - ११ - ११३५ *
यदि मैं केवल माताजी के लिये काम करूं तो अहं के हस्तक्षेप का अर्थ होगा कि वह बाहर से आता है? क्योंकि मैं अपने अहं को साथ रखकर केवल माताजी के लिये ही कार्य नहीं कर सकता
बेशक यह एक रास्ता है । परंतु फिर भी मनुष्य को अहंकार से सावधान रहना चाहिये । जो लोग सच्चे दिल से ऐसा समझते हैं कि वे केवल माताजी का कार्य कर रहे हैं वे भी बिना जाने अहंभाव के साथ आसक्त होते हैं । ४ - ४ - १९३६ १९० कर्म की कठिनाइयों से लाभ
में तुम्हारे संकल्प से प्रसन्न हूं । यदि मनुष्य इस विषय में समुचित मनोभाव ग्रहण करे तो, कर्म में चाहे जितनी भी कठिनाइयां क्यों न उठे, उनसे वह अपनी समता को गहरा बनाकर उतना ही अधिक लाभ उठा सकता है । तुम्हें इस विषय में सहायता ग्रहण करने के लिये अपने- आपको खुला भी रखना चाहिये, क्योंकि प्रकृति को बदलने के लिये माताजी से बराबर ही सहायता आती रहेगी । २१ - १ - ११३५ *
अपने को दुःखित या निरुत्साहित मत होने दो । दुर्भाग्यवश मनुष्यों को एक- दूसरे के प्रति कठोर होने का अभ्यास पड़ गया है । अगर तुम अपना काम पूरी सच्चाई के साथ करो तो माताजी संतुष्ट होंगी और बाकी चीजों पीछे स्वयं आती रहेंगी । तुम्हें ' अ ' के चट गर्म हो जाने का ख्याल नहीं करना चाहिये । सर्वदा याद रखो कि तुम माताजी का कार्य कर रहे हो, और अगर तुम कार्य करते हुए माताजी को स्मरण कर सको तो माताजी की कृपा तुम्हारे साथ रहेगी । कार्यकर्ता के लिये यही समुचित भाव है, और यदि तुम इस भाव में कार्य करो तो शांत आत्मदान का भाव उत्पन्न होगा । १ - ३ - ११३३
माताजी के साथ आंतर संपर्क रखते हुए काम करना
तुम्हें अधिक दृढ़ता के साथ अन्तःकरण में अपने- आपको एकत्र करना होगा । यदि तुम निरंतर अपने को छितराये रखो । आंतरिक क्षेत्र से बाहर चले जाओ तो तुम साधारण बाहरी प्रकृति की तुच्छताओं तथा जिन प्रभावों की ओर बह खुली होती है उनके अंदर सर्वदा विचरण करते रहोगे । अंतर में रहना और सदा भीतर से, निरन्तर माताजी के संपर्क में रहते हुए कार्य करना सीखो ।सर्वदा और पूर्ण रूप से ऐसा करना आरंभ में कठिन हो सकता है, पर कोई १९१ यदि उसमें लगा रहे तो यह किया जा सकता है - और इसी मूल्य पर, उस दृढ़ता को सीखकर ही मनुष्य योग में सिद्धि प्राप्त कर सकता है । ५ - ६ - ११३४ *
जब बाहर चीजों अस्तव्यस्त हो जायें तब तुम्हें तुरत इस नियम पर अपने मन को जमा देना चाहिये कि बाहरी रूपों को देखकर फैसला करना उचित नहीं है - अपने भीतर माताजी की ज्योति के सामने सब कुछ रख देना चाहिये और यह विश्वास रखना चाहिये कि सब स्पष्ट हो जायेगा । माताजी कहती हैं कि यदि किसी समय तुम काम का बहुत अधिक बोझ अनुभव करो तो तुम्हें तुरंत उनसे कहना चाहिये जिससे कि वे देख सकें कि क्या किया जा सकता है । १ ६- १ - १९३३ *
कर्म में माताजी की शक्ति की ओर उद्घाटन और विश्राम की आवश्यकता
शरीर की साधारण अवस्था में अगर तुम बहुत अधिक काम करने के लिये शरीर को बाध्य करो तो प्राण-शक्ति का सहारा लेकर वह उसे कर सकता है । पर ज्यों ही काम समाप्त हो जाता है त्यों ही प्राणशक्ति हट जाती है और तब शरीर थकावट अनुभव करता है । अगर ऐसा बहुत अधिक और बहुत लम्बे समय तक किया जाये तो थकावट के कारण स्वास्थ्य और शक्ति का हास हो सकता है । तब स्वस्थ होने के लिये विश्राम की आवश्यकता होती है ।
परंतु मन और प्राण को यदि माताजी की शक्ति की ओर खुलने का अभ्यास हो जाये तो फिर वे शक्ति का सहारा प्राप्त करते हैं और यहांतक कि उससे एकदम भर भी सकते हैं -उस समय शक्ति काम करती है और पहले या पीछे शरीर कोई दबाव या थकावट नहीं अनुभव करता । परंतु उस अवस्था में भी, जबतक स्वयं शरीर भी नहीं खुलता और शक्ति को आत्मसात् करने और बनाये रखने में समर्थ नहीं होता । तबतक कर्म में बीच-बीच में पर्याप्त विश्राम करना एकदम आवश्यक है । अन्यथा, शरीर यद्यपि बहुत दीर्घ कालतक चलता रह सकता है, फिर भी अंत में उसके भंग हो जाने का खतरा बना रह सकता है । जब पूरा प्रभाव विद्यमान हो और मन तथा प्राण में अनन्य श्रद्धा-विश्वास १९२ और पुकार हो तो शरीर को बहुत लम्बे समय तक बनाये रखा जा सकता है; परंतु मन या प्राण यदि अन्य प्रभावों के द्वारा चंचल हो गये हों या जो शक्तियां माताजी की नहीं हैं उनकी ओर खुले हों तो फिर उससे एक मिली-जुली अवस्था उत्पन्न होगी और कभी तो शक्ति-सामर्थ्य मालूम होगी और कभी थकावट, निर्बलता या अस्वस्थता अथवा एक साथ ही दोनों की मिली-जुली अवस्था । अंत में, यदि केवल मन और प्राण ही नहीं, वरन् शरीर भी खुला रहे और शक्ति को आत्मसात् कर सके तो वह बिना भंग हुए कार्य के अंदर असाधारण चीजों संपन्न कर सकता है । फिर भी, उस अवस्था में भी विश्राम की आवश्यकता होती है । यही कारण है कि जिन लोगों में कर्म की प्रवृत्ति है उनसे हम आग्रह करते हैं कि वे श्रम और विश्राम के बीच समुचित समतोलता बनाये रखें । थकावट से पूर्ण मुक्ति पाना संभव है, पर वह केवल तभी आती है जब कि पार्थिव चेतना में अतिमानसिक शक्ति के पूर्ण अवतरण के द्वारा शरीर के धर्म का ही संपूर्ण रूपांतर हो जाये । *
यही बात आश्रम में शारीरिक काम करनेवालों में प्रतिदिन हुआ करती थी । कम के प्रति अनुराग रखते हुए वे अत्यधिक शक्ति और उत्साह के साथ काम करते और कुछ समय बाद जब थकावट अनुभव करते तो माताजी को पुकारते और उनमें एक प्रकार का विश्राम का बोध उत्पत्र होता तथा उसके साथ-ही- साथ या उसके बाद ही शक्ति की एक बाढ़-सी आ जाती जिससे दुगुना काम भी एकदम बिना थकावट या प्रतिक्रिया के पूरा हो जाता था । बहुतों में तो प्राण के अंदर स्वभावत: ही शक्ति के लिये पुकार थी जिससे कि वे ज्यों ही काम आरंभ करते त्यों ही शक्ति की बाढ़ को अनुभव करते और जबतक काम करना होता तबतक वह बाढ़ बनी रहती । २६ - ३ - ११३६
कर्म में प्राणशक्ति
कर्म में अनुभूत प्राणशक्ति से मत डरो । प्राणशक्ति भगवान् की एक बहुमूल्य देन है जिसके बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता -जैसा कि माताजी ने १९३ प्रारंभ से ही सर्वदा जोर देकर कहा है; यह शक्ति इसलिये दी गयी है कि ' उनका ' (भगवान् का) काम किया जा सके । में बहुत प्रसन्न हूं कि वह वापस आ गयी है और उसके साथ प्रसन्नता और आशा का भाव भी आ गया है । ऐसा ही होना उचित था ।
१९४ ८
श्रीमाताजी के लिये किये गये कर्म के द्वारा साधना
साधना और माताजी के लिये कार्य
यदि माताजी पर समुचित रूप से मन को एकाग्र करके उनके लिये कार्य किया जाये तो वह भी ध्यान और आंतरिक अनुभूतियों के समान ही साधना है ।
* जो लोग पूरी सच्चाई के साथ माताजी के लिये काय करते हैं वे स्वयं कार्य के द्वारा ही समुचित चेतना प्राप्त करने के लिये तैयार किये जाते हैं, भले ही वे ध्यान करने के लिये न बैठे अथवा योग का कोई विशेष अभ्यास न करें । तुम्हें यह बताने की आवश्यकता नहीं कि ध्यान कैसे किया जाता है; अगर तुम अपने कर्म में और सब समय सच्चे बने रहो और अपने- आपको माताजी के प्रति खोले रखो तो जो कुछ आवश्यक है वह अपने- आप ही आयेगा ।
पूर्णयोग में कर्म की आवश्यकता
अनुभूतियां प्राप्त करने के लिये पूर्ण रूप से भीतर चले जाने और कर्म की, बाहरी चेतना की उपेक्षा करने का अर्थ है समतोलता खो बैठना, साधना में एकमुखी हो जाना -क्योंकि हमारा योग सर्वांगपूर्ण है; इसी तरह अपने- आपको बाहर की ओर फेंक देना और केवल बाहरी सत्ता में रहना भी समतोलता खो बैठना है; साधना में एकमुखी हो जाना है । साधक को आंतर अनुभूति और बाह्य कर्म दोनों में एक ही चेतना बनाये रखनी चाहिये तथा दोनों को माताजी से भर देना चाहिये । जबतक मनुष्य का मन खूब मजबूत न हो तबतक अपना सारा समय या समय का अधिकांश ध्यान में व्यतीत करना अच्छा नहीं -क्योंकि ऐसा करने से मनुष्य को पूर्ण रूप से आंतर जगत् में रहने और बाहरी त्यों से संस्पर्श खो बैठने की आदत पड जाती है -इससे एकपक्षीय सामंजस्यहीन गति उत्पन्न * जबतक मनुष्य का मन खूब मजबूत न हो तबतक अपना सारा समय या समय का अधिकांश ध्यान में अतीत करना अच्छा नहिं-क्योंकि ऐसा करने से मनुष्य को रुप से आंतर जगत् में रहने और बहरी तथ्यों से संस्पर्श खो बैठने की आदत पड जाति है -इससे एकपक्षीय सामंजस्यहीन गति उत पत्र १७५ होती है और यह समतोलता भंग कर सकती है । ध्यान और कर्म दोनों करना तथा दोनों को माताजी को अर्पित कर देना ही सबसे उत्तम बात है । ६ - ८ - ११३३ *
हमारा अनुभव यह नहीं है कि केवल ध्यान के द्वारा प्रकृति को रूपांतरित करना संभव है, और न बाहरी क्रिया-कलाप और कर्म से अलग हो जाने पर उन लोगों को विशेष लाभ ही हुआ है जिन्होंने इसका परीक्षण किया है; बहुत से लोगों के लिये यह हानिकारक भी हुआ है । कुछ अंश में मन को एकाग्र करने, हृदय में आंतरिक अभीप्सा रखने तथा वहां माताजी की उपस्थिति की ओर और ऊपर से आनेवाले अवतरण की ओर चेतना को खोले रखने की आवश्यकता है । परंतु बिना किसी क्रिया के । बिना किसी कर्म के वास्तव में प्रकृति में परिवर्तन नहीं होता; काम में और मनुष्यों के साथ संपर्क होने पर ही प्रकृति के परिवर्तन का परीक्षण होता है । जो काम मनुष्य करता है उनमें न तो कोई ऊंचा है, न कोई नीचा; सभी कर्म एक जैसे हैं बशते कि वे माताजी को अर्पित हों और उनके लिये तथा उनकी शक्ति के द्वारा किये गये हों । ६ - १० - ११३४ *
यह तब होता है जब कि कर्म बराबर माताजी के चिन्तन के साथ संयुक्त होता है । यह पुकार रखते हुए कि माताजी तुम्हारे द्वारा उसे करें, उनकी पूजा के रूप में किया जाता है । अहंकार की सभी भावनाएं, कर्म के साथ लगे हुए सभी अहंजन्य हृद्गगत भाव अवश्य दूर होने चाहियें । फिर साधक श्रीमां की शक्ति को कार्य करते हुए अनुभव करना आरंभ करता है; कम के पीछे विद्यमान एक विशिष्ट आंतर मनोभाव के द्वारा चैत्य पुरुष वर्धित होता है और आधार भीतर से आनेवाली चैत्य संबोधी तथा प्रभाव एवं ऊपर से होनेवाले अवतरण दोनों के प्रति उद्घाटित हो जाता है । उस समय स्वयं कम के द्वारा ही ध्यान का फल भी प्राप्त हो सकता है । * 'श ' कहता हे कि वह काम के समय आपकी उपस्थिति उस प्रकार नहीं अनुभव कर पाता जिस प्राकार ध्यान के समय /उसे समज्ञ में नहिं आता २७६ कि कैसे कर्म उसके लिए सहायक हो सकता है / उसे अपने कार्य को अर्पित करना तथा उसके द्वारा माताजी को शक्ति को कार्य करते हुए अनुभव करना सीखना है । निरे बैठे-बैठे प्राप्त किया हुआ आत्मगत साक्षात्कार केवल अर्ध-साक्षात्कार है । २३ - १ - ११३४ * माताजी ऐसा नहीं समझतीं कि समस्त कम का त्याग कर देना तथा केवल पढ़ना और ध्यान करना अच्छा है । कर्म भी योग का अंग है और यह प्राण तथा उसकी क्रियाओं के अंदर भागवत उपस्थिति, ज्योति और शक्ति को उतार लाने का सबसे उत्तम सुयोग प्रदान करता है; यह आत्मसमर्पण के क्षेत्र और सुअवसर को भी बढ़ाता है । यह स्मरण रखना ही काफी नहीं है कि कर्म माताजी का है- और उसके परिणाम भी; तुम्हें अपने पीछे माताजी की शक्ति को अनुभव करना और उनकी अंतः प्रेरणा तथा पथ-प्रदर्शन की ओर खुले रहना भी सीखना चाहिये । सदा मन के प्रयास के द्वारा स्मरण करना अत्यंत कठिन है; अगर तुम उस चेतना में चले जाओ जिसमें तुम सर्वदा माताजी की शक्ति को अपने अंदर या अपने को सहारा देते हुए अनुभव करो तो बस वही सच्ची चीज है । तुमने बीमा कम्पनी के विषय में जैसी निश्चित सलाह मांगी है । वैसी सलाह साधारणतया माताजी नहीं दिया करती । तुम्हें अपने मन की नीरवता में सच्ची अंतः प्रेरणा पाना सीखना चाहिये । १८-८-१९३२ *
जो लोग शांति और ' समता ' मैं निवास करते हैं पर माताजी के लिए कोई काम करते हैं, क्या बे रूपांतर प्राप्त करते हैं?
नहीं, वे बिलकुल रूपांतरित नहीं होते । ७-५-१९३३ १७७ श्री माताजी की शक्ति के साथ एकत्व प्राप्त करने की दो अवस्थाएं
इस बात का बोध होना कि हम जो कुछ करते हैं वह सब भगवान् से आया है । समस्त कर्म ही श्रीमां के हैं । अनुभूति का एक आवश्यक कदम है, पर हम उसीमें बने नहिं रह सकते -हमें उससे भी आगे जाना होगा । वे ही लोग इसमें बने रह सकते हैं जो प्रकृति को बदलना नहीं चाहते, बल्कि उसके पीछे विद्यमान सत्य का केवल अनुभव प्राप्त करना चाहते हैं । तुम्हारा कर्म विश्व प्रकृति के अनुसार होता है और फिर साथ ही तुम्हारी व्यक्तिगत प्रकृति के अनुसार । समस्त प्रकृति एक शक्ति है जिसे भगवती माता ने विश्व के कार्य के लिये बाहर निकाल रखा है । अभी जैसी स्थिति है उसमें यह अज्ञान और अहंकार का एक कार्य है; परंतु हम चाहते हैं ऐसा कर्म जो भागवत सत्य का हो और अज्ञान तथा अहंकार द्वारा आच्छादित और विकृत न हो. । अतएव जब तुम यह अनुभव करते हो कि तुम्हारे सभी कर्म माताजी की शक्ति के द्वारा किये जा रहे हैं, तब यह सच्ची अनुभूति है । परंतु माताजी की इच्छा यह है कि जो कुछ तुम करो वह केवल प्रकृति के अंदर विद्यमान उनकी शक्ति के द्वारा नहीं होना चाहिये जैसा कि अभी हो रहा है, बल्कि उनकी प्रकृति के, दिव्य सत्य में विद्यमान उनकी निजी सीधी शक्ति के, उच्चतर दिव्य प्रकृति के द्वारा होना चाहिये । अतएव यह भी ठीक था । जैसा कि तुमने पीछे सोचा, कि जबतक यह परिवर्तन नहीं आ जाता, तबतक यह अनुभव ध रूप से सच्चा नहीं हो सकता कि जो कुछ भी तुम करते हो वह उनकी ही इच्छा से हो रहा है इसलिये तबतक यह स्थायी नहीं होगा । क्योंकि, अगर यह अभी स्थायी हो तो यह तुम्हें निम्नतर कर्म में ही बनाये रखेगा जैसा कि यह बहुतों को बनाये रखता हे और परिवतंन को रोक देगा या उसके होने में देर लगायेगा । अभी स्थायी अनुभूति के रूप में जिस चीज की तुम्हें आवश्यकता है वह यह है कि श्रीमां की शक्ति तुम्हारे अंदर सभी चीजों में इस अज्ञानपूर्ण चेतना और प्रकृति को अपनी दिव्य चेतना और प्रकृति में पलट देने के लिये कार्य कर रही हे ।
यही बात यन्त्र होने के सत्य के विषय में भी कही जा सकती है । यह ठीक है कि प्रत्येक चीज विश्वशक्ति का यंत्र है और इसलिये श्रीमां का भी यंत्र है । पर साधना का लक्ष्य हे अचेतन और परिणामत: अपूर्ण यंत्र होने के बदले सचेतन और पूर्ण यंत्र बनना । हम केवलतभसचेतन और पूर्ण यंत्र बन सकते हैं जब कि निम्न ' के अज्ञनपूण धक्के के वशवर्ती होकर कार्य न
करें बल्कि श्रीमां को आत्मसमर्पण करके तथा हमारे अंदर कार्य करनेवाली उनकी उच्चतर शक्ति का ज्ञान रखते हुए कार्य करें । अतएव इस विषय में भी तुम्हारा अंतज्ञान पूर्ण रूप से ठीक था । पर यह सब एक दिन में ही नहीं किया जा सकता । अतएव इसके लिये उत्सुक या बेचैन न होने में तुम एक बार फिर ठीक ही उतरे । माताजी की शक्ति कार्य करेगी और अपने निजी समय पर परिणाम उत्पन्न करेगी, बशर्ते कि हम सब कुछ उन्हें अर्पित कर दें, अभीप्सा करें तथा सजग रहें, सब समय उन्हें स्मरण करते और पुकारते रहें, तथा उनकी रूपान्तरकारी शक्ति के कार्य के मार्ग में जो कुछ आ खड़ा हो उसका चुपचाप त्याग करते रहें । इस बात के विषय में तुम्हारी दूसरी राय पहली की अपेक्षा कहीं अधिक समुचित दृष्टिकोण से आयी थी । यह कहना कि '' वास्तव में देखा जाये तो कार्य करना मेरा काम नहीं है, अतएव मुझे चिता करने की आवश्यकता नहीं,'' बहुत अधिक कहना है -जहांतक हमें अभीप्सा करना, अपने- आपको अर्पित करना, श्रीमां की क्रिया को स्वीकृति देना, अन्य सभी चीजों का त्याग करना तथा अधिकाधिक आत्मसमर्पण करना है वहांतक तो हमें करना ही है । बाकी चीजों यथासमय कर दी जायेंगी, चिंतित या अवसन्न या अधीर होने की कोई आवश्यकता नहीं । १३ - ७ -१ १३५ *
सबसे. पहले हमें अपनी इच्छा को श्रीमां की इच्छा के साथ युक्त कर देना चाहिये और यह समझना चाहिये कि यह केवल यंत्र है और वास्तव में इसके पीछे विद्यमान केवल श्रीमां की इच्छा ही फल प्रदान कर सकती है । उसके बाद जब हम अपने भीतर कार्य करनेवाली श्रीमाताजी की शक्ति के विषय में पूर्ण रूप से सचेतन हो जाते हैं तब व्यक्तिगत इच्छा का स्थान भागवत इच्छा ले लेती है । १५ - ७ - ११३५ *
केवल एक साधारण मनोभाव ही नहीं होना चाहिये, बल्कि प्रत्येक कम माताजी को अर्पित होना चाहिये जिसमें कि वह मनोभाव सब समय सजीव बना रहे । काम के समय ध्यान नहिं होना चाहिये, क्योंकि वह हमारे ध्यान को कर्म से १७९ हटा देगा; परंतु जिन 'एक ' को तुम अपना कर्म अर्पित करते हो उनका सतत स्मरण अवश्य बना रहना चाहिये । यह केवल प्राथमिक प्रक्रिया है; क्योंकि जब तुम निरंतर अपने भीतर एक शांत सत्ता का बोध बनाये रख सकोगे, भागवत सान्निध्य के बोध में एकाग्र हुए. रहोगे और उसके साथ ही साथ ऊपरी मन काम करता रहेगा, अथवा जब बराबर यह अनुभव करना आरंभ करोगे कि श्रीमां की शक्ति ही कार्य कर रही है और तुम केवल एक प्रणाली या यंत्र हो, तब स्मरण के स्थान पर कर्म में योग की, दिव्य एकत्व की एक सहज-स्वाभाविक सतत अनुभूति आरंभ हो जायेगी । *
प्रत्येक व्यक्ति माताजी के अंदर है, परंतु सबको इस विषय में -केवल कम के विषय में ही नहीं -सचेतन होना चाहिये । १ - ४ - १९३५ * क्या यह सच है कि व्यक्ति को अनुभव करना चाहिये कि भागवत उपस्थिति ही उसे चलाती है और उसके लिये सब कुछ करती है? क्या भगवती माता के साथ एकत्व प्राप्त किये बिना उसे ( उपस्थिति को) अनुभव करना संभव है?
नहीं, यह अनुभव करना कि भागवत उपस्थिति तुम्हारे ऊपर या अंदर है और तुम्हें चला रही है, अपने- आपमें माताजी के साथ एकत्व ही है । १४ - ७ -१९ ३३ *
आज मुझे लगा मानों मुझसे मित्र कोई और मेरे कार्य कर रहा हो निःसंदेह मैं वहां था पर पृष्ठभूमि में । क्या वह माताजी की शक्ति गई नहीं थी जो मुझे समग्र रूप से अपने अंदर ले लेने का यत्न कर रही थी?
ऐसा कहना अत्युक्तिपूर्ण है । जो तुमने कहा है उसका अर्थ इतना ही है कि तुम्हें सभी क्यों के पीछे अवस्थित वैश्व शक्ति की कोई झांकी मिली । २-६-११३४2
* १८० अपने संकल्प को माताजी के साथ एक कैसे किया जा सकता है?
अपनी चेतना को माताजी की चेतना के साथ सतत सम्पर्क में रखकर अपनी इच्छाशक्ति को माताजी की इच्छाशक्ति के साथ एक किया जा सकता है । २४ - ६- ११३३ *
माताजी की चेतना के साथ '' अपनी चेतना का सतत संपर्क स्थापित करने '' से आपका क्या मतलब है जिसके विषय में आपने कहा है कि वह उनकी इच्छाशक्ति के साथ एकत्व के लिये आवश्यक हे7 उसका मतलब मानसिक संपर्क से है या आंतरात्मिक से?
उसका तात्पर्य उस संपूर्ण संपर्क से है जिसका आधार हो चैत्य (आंतरात्मिक) संपर्क । २५ - ६- १९३३ * मेरा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण दर्शाता है कि माताजी को अपने अंदर सहज- स्वाभाविक रूप से काम करने देना हम साधकों के लिये सदा संभव नहीं होता क्योंकि प्रायः ही हमारे अंदर की कोई चीज उनसे किनारा करती है और उनके प्रवेश के सभी द्वार बंद कर देती है मैं समझता हूं सर्वोत्तम मार्ग होगा अपनी संकल्पशक्ति का विकास करना इग्जससे कि कोई चीज द्वारों को फिर से खोलने में हमारी सहायता करने के लिये वहां सदा उपस्थित रहे मेरा मतलब यहां प्राणिक या मानसिक ढंग के संकल्प से नहीं बल्कि सच्ची संकल्प-शक्ति से है क्या आप कृपा करके इस विषय पर प्रकाश डालेंगे कि उसे कैसे विकसित किया जाये?
उसे विकसित करने के मार्ग हैं (१ ) पीछे की ओर स्थित उस सचेतन शक्ति से सज्ञान होना जो मन आदि का प्रयोग करती है । (२ ) अभ्यास के द्वारा उस शक्ति को उसके लक्ष्य की ओर परिचालित करना सीखना । मैं नहीं समझता १८१ कि तुम इन दोनों उपायों में से किसी का भी तुरंत अनुसरण करना आसान पाओगे -सर्वप्रथम तुम्हें आंतरिक चेतना में पहले की अपेक्षा अधिक गहरे निवास करना सीखना होगा । १६ - ७- ११३४
माताजी की इच्छा का अनुसरण करने की शर्ते
माताजी की इच्छा का अनुसरण करने के लिये शर्ते हैं उनकी ओर ज्योति, सत्य और शक्ति के लिये मुड़ना और यह अभीप्सा करना कि कोई भी दूसरी शक्ति तुमपर प्रभाव न डाले या तुम्हें पथ न दिखाये, प्राण के अंदर कोई मांग न करना या कोई शर्त न रखना, सत्य को ग्रहण करने के लिये तैयार एक स्थिर मन बनाये रखना, पर उसीकी अपनी भावनाओं और रचानाओं पर आग्रह न करना, - अंत में, चैत्य पुरुष को जाग्रत् और सामने की ओर रखना जिससे कि तुम निरंतर एक संपर्क बनाये रख सको और सचमुच जान सको कि उनकी इच्छा क्या है । क्योंकि मन और प्राण भूल से अन्य प्रेरणाओं और सुझावों को भगवान् की इच्छा मान सकते हैं, पर चैत्य पुरुष जब एक बार जग जाता है तब वह कभी भूल नहीं करता । अतिमानसिक रूपांतर होने के बाद ही आ पूर्णता प्राप्त करना संभव होता हे; पर अपेक्षाकृत कुछ अच्छी क्रिया का होना निम्नतर स्तरों पर भी संभव है अगर कोई भगवान् के साथ संस्पर्श बनाये रखे और अपने मन, प्राण और शरीर में सावधान, जाग्रत् और सचेतन रहे । इसके अतिरिक्त, यह एक ऐसी अवस्था है जो तैयारी करनेवाली है और परम मुक्ति के लिये प्रायः अनिवार्य है ।
दिव्य जीवन का आधार
पूर्ण रूप से सच्चा होने का मतलब है एकमात्र दिव्य सत्य की कामना करना, भगवती माता को अधिकाधिक आत्मसमर्पण करना, इस एक अभीप्सा से भिन्न अन्य सभी व्यक्तिगत मांगों और कामनाओं का त्याग करना, जीवन के प्रत्येक कर्म को श्री भगवान् के चरणों में उत्सर्ग कर देना और कर्म को भगवहत्त कर्म समझकर करना तथा उसमें अहंकार को न आने देना । यही दिव्य जीवन का आधार है । १८२ कोई भी आदमी तुरत ऐसा नहीं बन सकता; पर । कोई यदि बराबर अभीप्सा करे और सच्चे हृदय तथा सत्य-संकल्प के साथ निरंतर भागवत शक्ति की सहायता की पुकार करे तो वह अधिकाधिक इस चेतना में वर्धित होगा |
कर्मयोग की सच्ची चेतना
उसे अपना कार्य करते रहना चाहिये और समुचित चेतना में रहकर अन्य सभी चीजों को करना चाहिये, वह जो कुछ भी करे उसे माताजी को समर्पित करना चाहिये और उनके साथ अपना आंतर संस्पर्श बनाये रखना चाहिये । इस भाव के साथ और इस चेतना में रहकर किये गये सभी कर्म कर्मयोग बन जाते हैं और उसकी साधना का अंग माने जा सकते हैं । * कम में जो कुछ तुमने पाया और बनाये रखा वह वास्तव में कर्मयोग की सच्ची और मौलिक चेतना है -ऊपर से सहारा देती हुई शांत-स्थिर चेतना और ऊपर से कार्य करती हुई शक्ति तथा उसके साथ भक्ति जो यह अनुभव करती है कि यह माताजी की चेतना ही है जो उपस्थित और क्रियाशील है । अब तुम अनुभव द्वारा जान गये हो कि कर्मयोग का रहस्य क्या है । १५ - १ - ११३६
कर्म में समुचित मनोभाव
केवल अपनी आंतरिक एकाग्रता में ही नहीं, बल्कि अपने बाह्य कार्य और गतिविधियों में भी तुम्हें यथार्थ मनोभाव ग्रहण करना चाहिये । अगर तुम ऐसा करो और प्रत्येक चीज को माताजी के पथप्रदर्शन में छोड़ दो तो तुम देखोगे कि कठिनाइयां कम हो रही हैं और उन्हें बहुत अधिक आसानी से पार किया जा रहा है तथा सभी बातें धीरे -धीरे आसान होती जा रही हैं । अपनी क्रिया तथा अपने कर्मी में तुम्हें ठीक वही करना चाहिये जो तुम ध्यान में करते हो । श्रीमां की ओर उद्घाटित होओ, उन्हें श्रीमां के पथप्रदर्शन में छोड़ दो, शांति, सहारा देनेवाली शक्ति और संरक्षण को पुकारो तथा, '? कि वे कार्य कर सकें उन सभी प्रभावों का त्याग करो जो १८३ विपरीत, असावधान या अचेतन गतियां उत्पन्न करके उनके रास्ते में बाधा खड़ी कर सकते हैं । इस सिद्धांत का अनुसरण करो और तुम्हारी सारी सत्ता शांति के अंदर तथा आश्रयदात्री दिव्य शक्ति और ज्योति के अंदर एक - अविभक्त सत्ता - बन जायेगी, एक शासन के अधीन हो जायेगी । * तुम्हारे लिये बस सत्य यही है कि तुम भगवान् को अपने अंदर अनुभव करो, माताजी की ओर उद्घाटित होओ और तबतक भगवान् के लिये काय करते रहो जबतक तुम अपने सभी कार्य में भगवती माता को अनुभव न करने लगो । यह चेतना रहनी ही चाहिये कि तुम्हारे हृदय में भागवत उपस्थिति विद्यमान है और तुम्हारे कार्य में भागवत पथप्रदर्शन प्राप्त हो रहा है । यदि चैत्य पुरुष पूर्ण ? रूप से जाग्रत् हो तो वह इसे सहज ही, तेजी से और गहराई के साथ अनुभव कर सकता है; और यदि चैत्य पुरुष एक बार इसे अनुभव कर ले तो यह फिर मनोमय और प्राणमय स्तरों में भी फैला सकता है । * मांगें पेश नहीं करनी चाहियें; तुम माताजी से जो कुछ अपने- आप पाते हो वह तुम्हें सहायता करता है; जो कुछ तुम मांगते हो या माताजी पर लादने की चेष्टा करते हो वह उनकी शक्ति से खाली होगा ही । माताजी प्रत्येक व्यक्ति के साथ उसकी सच्ची आवश्यकता (वह स्वयं अपनी कल्पना के अनुसार जिसे आवश्यकता मान ले वह नहीं) । साधना में उसकी प्रगति और उसकी प्रकृति के अनुसार अलग- अलग रूप में व्यवहार करती हैं । तुम्हें जो शक्ति पाने की आवश्यकता है उसे प्राप्त करने का तुम्हारे लिये सबसे अधिक फलदायी मार्ग है सचेतन और सावधान होकर काम करना, ठीक- ठीक उसे संपन्न करने में किसी चीज को बाधा न डालने देना । अगर तुम ऐसा करो और उसके साथ ही साथ अपने कर्म में माताजी की ओर खुले रहो तो तुम अधिक सतत रूप में कृपा ग्रहण करने लगोगे और उनकी शक्ति को अपने द्वारा काम करते हुए अनुभव करने लगोगे; और इस तरह सर्वदा उनकी उपस्थिति को अनुभव करते हुए निवास करने में समर्थ होगे । इसके विरुद्ध, यदि तुम अपनी मनमौजों या कामनाओं को अपने कार्य में हस्तक्षेप करने दो अथवा असावधान १८४ रहो और उपेक्षा करो तो तुम उनकी कृपाशक्ति के प्रवाह को बाधा पहुंचाओगे और अपने अंदर उदासी, बेचैनी तथा अन्य विजातीय शक्तियों के घुस आने के लिये अवकाश प्रदान करोगे । इस साधना की धारा में प्रवेश करने के लिये कर्म के द्वारा योग करना सबसे आसान और अत्यंत फलप्रद मार्ग है । ८ - ३ - ११३० *
अगर अक्षमता । तामसिकता और निष्कियता को स्वीकार किया जाये तो अत्यंत विशुद्ध भौतिक और यांत्रिक कार्य भी समुचित ढंग से नहीं किया जा सकता । इलाज यह नहीं है कि तुम अपने को यंत्रवत् होनेवाले कार्य में आबद्ध कर दो । बल्कि यह है कि तुम अक्षमता, निष्कियता और तामसिकता का त्याग करो और उन्हें दूर फेंक दो तथा माताजी की शक्ति की ओर अपने को खोल दो । अगर मिथ्याभिमान । महत्त्वकांक्षी और आत्मप्रतारणा तुम्हारे रास्ते में आ खड़ी हों तो उन्हें अपने से दूर फेंक दो । अगर तुम उनके विलुप्त होने के लिये महज राह देखते रहो तो उन सब चीजों से छुटकारा नहीं पाओगे । अगर तुम चीजों के घटित होने की प्रतीक्षा ही करो तो फिर कोई कारण नहीं कि वे बिलकुल ही घटित हों । अगर अक्षमता और दुर्बलता ही बाधा डालती हों तो भी, जैसे- जैसे मनुष्य सच्चे रूप में और अधिकाधिक श्रीमां की शक्ति की ओर खुलता जायेगा, वैसे-वैसे उसे काम के लिये आवश्यक शक्ति-सामर्थ्य और क्षमता मिलती रहेगी और वे आधार में बढ़ती रहेंगी । * सच्ची चेतना में रहने का लाभ यह है कि तुम्हें सच्ची चेतना प्राप्त होती है और उसके संकल्प के श्रीमां के संकल्प के साथ सुसमंजस होने के कारण तुम परिवर्तन लाने के लिये श्रीमां की शक्ति को पुकार सकते हो । जो लोग मन और प्राण में निवास करते हैं वे यह करने में उतने समर्थ नहीं होते; उन्हें अधिकांश में अपने व्यक्तिगत प्रयास का उपयोग करने के लिये बाध्य होना पड़ता है और चूंकि मन और प्राण की जानकारी, संकल्प और शक्ति विभक्त और अपूर्ण होती हैं, उनके द्वारा किया हुआ कार्य भी अपूर्ण होता है और अंतिम नहीं होता । केवल अतिमानस में ही ज्ञान, संकल्प और शक्ति सर्वदा एक अभिन्न गति होती है और स्वभावत: ही फलप्रद होती है । * १८५ काम के समय मैं बराबर ही माताजी के संस्पर्श में रहता है मुझे केवल उनकी याद ही नहीं रहती बल्कि काम के अंदर उनके साथ संपर्क बना रहता है । उनकी शक्ति निरंतर आधार में बहती रहती है और कार्य अपने- आप संपन्न होता है? पर होता है तेज से, पूर्ण रूप से बिना किसी हिचकिचाहट के -बिना किसी व्यक्तिगत दुश्चिंता और उत्तरदयित्व के; बल्कि उनके स्थान पर अब पूरा विश्वास निश्चयता शक्ति और अचंचलता विद्यमान हैं मैं समझता हूं कि यदि मैं इस मनोभाव के साथ कार्य कर सकृं तो वह पूर्ण निर्दोष और माताजी के बच्चे का कार्य बन जायेगा एक अहंकारपूर्ण मनुष्य का नहीं कृपया मुझे बताइये कि मेरी बात ठीक है या नहीं
हां, यह बहुत अच्छी प्रगति है और कर्म के लिये दिव्य शक्ति का ठीक-ठीक उपयोग करने का पहला कदम है । * '' योग- समन्वय '' और '' मातृवाणी '' दोनों में मैंने पड़ा है कि प्रत्येक कार्य चेष्टा विचार और शब्द अर्पण- रूप होना चाहिये चाहे यह कठोर रूप से मानसिक प्रयत्न ही हो जिसमें हृदय की भक्ति न हो जैसा कि यह शुरू- शुरू में हो सकता है, फिर भी यदि प्रयत्न सच्चा हो तो वह निश्चित रूप से भक्ति की ओर ले जायेगा भ्रमण या भोजन- जैसे थोड़े- बहुत यांत्रिक ढंग के कार्यों में यह अनुशासन सर्वथा संभव है पर जहां कार्य में मानसिक एकाग्रता की आवश्यकता होती हे जैसे पढ़ने- लिखने में वहां यह लगभग असंभव ही प्रतीत होता है/यदि चेतना को स्मरण में लगे रहना पड़े तो ध्यान बट जायेगा और काम ठीक ढंग से संपत्र नहिं होगा / इसका कारण यह है कि लोग ऊपरी मन में निवास करते हैं और उसी के साथ एक हुए रहते हैं । जब कोई अधिक भीतर निवास करता है तो केवल उपरितलीय चेतना ही कार्यव्यस्त रहती है और व्यक्ति उसके पीछे एक अन्य, निश्चल- नीरव और समर्पित चेतना में स्थित रहता है । * १८६ क्या यह चेतना केवल अभीप्सा से आती है अथव क्या इसे व्यक्ति एक मानसिक अनुशासन का अनुसरण करके प्राप्त कर सकता हे?
व्यक्ति आरंभ तो मानसिक प्रयत्न से ही करता है । आगे चलकर एक आंतर चेतना गठित हो जाती है जिसके लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह सदा माताजी का चिंतन कर रही हो । * कार्य को माताजी के प्रति अर्पित करने के दो तरीके हे : एक है माताजी के चरणों में कार्य को उसी तरह भेंट करना जिस तरह कोई फूल चढ़ाता है; दूसरा है अपने व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से पीछे खींच लेना और के अनुभव करना मानों व्यक्ति जो- जो भी कार्य करता है उन सबको के ही कर रही हों पहले तरीके में कार्य करनेवाले में और माताजी में द्वैत- भाव है; पर दूसरे में अंतरंग घनिष्ठता और एकत्व है/ इन दो तरिकों में से कौन- सा साधना के लिये अधिक अच्छा है?
यह पूछने की जरूरत ही नहीं कि कौन-सा अच्छा है, क्योंकि ये एक-दूसरे को बहिष्कृत नहीं करते । मन ही इन्हें परस्पर-विरोधी समझता है । चैत्य पुरुष कार्य को अर्पित कर सकता है जब कि प्रकृति ' शक्ति ' के प्रति प्रतिरोध-रहित बनी रहती है (क्योंकि अहंभाव मिट गया या पीछे हट गया होता है) और वह माताजी की शक्ति को कार्य करती हुई अनुभव करती है तथा अपने अंदर उनकी उपस्थिति को भी । ५ - ११ - ११३८ *
जब कोई कार्य करता है तो वह अभीप्सा करता है की उचित समय आने पर माताजी की शक्ति उसके कार्य को अपने हाथ में ले ले/ जब व्यक्ति काम न कर रहा हो तब उसे किस चीज की अभीप्सा करनी चाहिये?
उसे अभीप्सा करनी चाहिये कि माताजी की शक्ति क्रिया करके समुचित क्रमिक अवस्थाओं के द्वारा उच्चतर चेतना को नीचे उतार लाये । यह भी कि मेरा आधार अधिकाधिक योग्य -शांत निरहंकार और समर्पित बने । १८७ कर्म में आत्म्प्रभुत्ब की आवश्यकता
माताजी तुम्हारे पुस्तक लिखने के काम को नामंजूर नहीं करतीं -बस वे यह नहीं चाहतीं कि तुम उसमें इतना डूब जाओ कि और कुछ भी न कर सको । जो कुछ तुम करो उसपर तुम्हारा अधिकार होना चाहिये, उसके द्वारा तुम्हें अधिकृत नहीं होना चाहिये । वे पूरी तरह से सहमत हैं कि तुम, यदि संभव हो तो, पुस्तक को पूरा कर डालो और अपने जन्मदिन पर उसे समर्पित कर दो । परंतु तुम्हें उसमें बह नहीं जाना चाहिये -तुम्हें उच्चतर वस्तुओं के साथ पूरा- पूरा संस्पर्श बनाये रखना चाहिये । १ - ५ - ११३४
सर्वांगपूर्ण सेवा की शर्ते
हृदय पर से अहंकार की छाप को मिटा दो और उसके स्थान पर माताजी के प्रेम को आ जाने दो । अपने व्यक्तिगत विचारों और निर्णय के प्रति होनेवाले समस्त आग्रह को अपने मन से दूर फेंक दो, तभी तुम माताजी को समझने के लिये ज्ञान प्राप्त करोगे । अपनी ही इच्छा में मत्त मत होओ, अपने कार्य को अहंकार द्वारा चालित मत होने दो, व्यक्तिगत अधिकार के लिये लोलुपता मत रहने दो, व्यक्तिगत पसंद के प्रति आसक्ति मत रखो, फिर देखोगे कि श्रीमां की शक्ति स्पष्ट रूप में तुम्हारे अंदर कार्य करने में समर्थ होगी और जो अक्षय शक्ति तुम मांगते हो उसे प्राप्त करोगे और तुम्हारी सेवा भी पूर्ण होगी । २७ - ११ - ११४० *
हां, यह - अहंकार, क्रोध, व्यक्तिगत नापसंदगी, आत्माभिमानी वेदनशीलता इत्यादि पर विजय पाना - अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात है । कर्म केवल कम के लिये नहीं है, बल्कि वह निम्नतर व्यक्तित्व और उसकी प्रतिक्रियाओं से छुटकारा पाने तथा भगवान् के प्रति पूर्ण समर्पण साधित करने के लिये साधना का एक क्षेत्र है । स्वयं कर्म का जहांतक प्रश्न है, वह माताजी द्वारा निश्चित या स्वीकृत व्यवस्था के अनुसार ही किया जाना चाहिये । तुम्हें यह सर्वदा याद रखना चाहिये कि वह माताजी का काय है, तुम्हारा व्यक्तिगत कार्य नहीं है । २३ - ३ - ११३५ * १८८ जब कभी तुम्हारे सामने ये परिरिथतियां और अनुभव आयें, मैं पहले जो कुछ लिख चुका हूं सहज उसीको दुहरा सकता हूं । काम को छोड़ना कोई समाधान नहीं है -सच पूछो तो कर्म के द्वारा ही मनुष्य यौगिक आदर्श के विरोधी, अहंभाव के अनुभवों एवं गतिविधियों को पहचान सकता और धीरे - धीरे उनसे मुक्त हो सकता है । कर्म स्वयं अपने लिये नहीं बल्कि माताजी के लिये किया जाना चाहिये, -इसी तरह मनुष्य चैत्य पुरुष की वृद्धि को प्रोत्साहन देता है और अहं को पार करता है । इसकी पहचान है अभिमान या आग्रह या व्यक्तिगत रुचि या सम्मान की भावना के बिना माताजी का दिया हुआ काम करना - अहंकार, आत्मसम्मान या व्यक्तिगत पसंद को आघात पहुंचानेवाली किसी चीज से आहत न होना । कर्म के द्वारा जो आदर्श साधक के सामने रखा गया है वह ऊंचा और महान् है और उसे एकाएक प्राप्त करना संभव नहीं, पर धीरे -धीरे उसमें वर्धित होना संभव है यदि मनुष्य उस आदर्श को - भगवती माता के कार्य के लिये निःस्वार्थ और पूर्ण संयत यन्त्र बनने के आदर्श को -सदैव अपने सामने रखे | २८ - १ - १९३३
निर्वयक्तिक कार्यकर्ता
साधारणतया निवैयक्तिक होने का अथ है अहंकेन्द्रित न होना, चीजों का असर स्वयं तुमपर कैसे पड़ता है उसकी दृष्टि से उन्हें न देखना । बल्कि उनके अंदर जो चीजों हैं उन्हें देखना, निष्पक्ष होकर विचार करना, स्वयं अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण या अहंकारपूण लाभ या अहंजन्य भावना या बोध के द्वारा नहीं । वरन् चीजों के अभिप्राय के द्वारा या ' चीजों के परम प्रभु ' की इच्छा के द्वारा जिस बात की मांग की जाये उसे करना । कार्य में वही करना चाहिये जो कार्य के लिये सबसे उत्तम हो, अपने निजी सम्मान या सुविधा का ख्याल नहीं करना चाहिये, कार्य को स्वयं अपना नहिं बल्कि माताजी का समझना चाहिये, उसे नियम, अनुशासन, निर्वयक्तिक प्रबन्ध के अनुसार, यहांतक कि यदि अवस्थाएं सबसे उत्तम रूप में करने के लिये अनुकूल न हों तो उस समय की अवस्थाओं के अनुसार करना चाहिये । निर्वयक्तिक कार्यकर्ता अपने पूरे सामर्थ्य, उत्साह और श्रमशीलता को कम में लगा देता है, पर अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं, मिथ्याभिमान और आवेगों को नहीं लगाता । वह हमेशा एक ऐसी चीज को १८९ अपनी दृष्टि में रखता है जो उसके तुच्छ व्यक्तित्व से अधिक महान् है और उसके प्रति जो उसकी भक्ति या आज्ञानुवर्तिता है, वही उसके जीवन को परिचालित करती है । २१ - ६- १९३५ *
प्रत्येक '' आंतरिक संकेत '' को ऐसा मानना खतरनाक होगा कि वह मानों माताजी से आया हुआ कर्म का संकेत या प्रारम्भ हो । जो कुछ आंतरिक संकेत मालूम होता है वह कहीं से भी, अपने- आपको चरितार्थ करने की चेष्टा करनेवाली किसी भी अच्छी या बुरी शक्ति से आ सकता है । चाहे कर्म स्वयं माताजी से ही क्यों न आया हो फिर भी उसके विषय में साधक में अहंकार रह सकता है । यन्त्र होने का अहंकार ऐसी चीजों में से एक है जिनमे योग में विशेष रूप से सावधान रहना चाहिये । जब मनुष्य काम करता है तब साधारणतया काम करनेवाली शक्ति का प्रको और उसे करने तथा उसे पूरा कर डालने की धुन या उसे करने का सुख पर्याप्त मात्रा में होता है और मन अन्य किसी चीज का चिंतन नहीं करता । उसके बाद '' इसे मैंने किया '' का बोध आ उपस्थित होता है । परंतु कुछ लोगों में स्वयं काम करते हुए भी अहंकार सक्रिय रहता है । ३ - ११ - ११३५ *
यदि मैं केवल माताजी के लिये काम करूं तो अहं के हस्तक्षेप का अर्थ होगा कि वह बाहर से आता है? क्योंकि मैं अपने अहं को साथ रखकर केवल माताजी के लिये ही कार्य नहीं कर सकता
बेशक यह एक रास्ता है । परंतु फिर भी मनुष्य को अहंकार से सावधान रहना चाहिये । जो लोग सच्चे दिल से ऐसा समझते हैं कि वे केवल माताजी का कार्य कर रहे हैं वे भी बिना जाने अहंभाव के साथ आसक्त होते हैं । ४ - ४ - १९३६ १९० कर्म की कठिनाइयों से लाभ
में तुम्हारे संकल्प से प्रसन्न हूं । यदि मनुष्य इस विषय में समुचित मनोभाव ग्रहण करे तो, कर्म में चाहे जितनी भी कठिनाइयां क्यों न उठे, उनसे वह अपनी समता को गहरा बनाकर उतना ही अधिक लाभ उठा सकता है । तुम्हें इस विषय में सहायता ग्रहण करने के लिये अपने- आपको खुला भी रखना चाहिये, क्योंकि प्रकृति को बदलने के लिये माताजी से बराबर ही सहायता आती रहेगी । २१ - १ - ११३५ *
अपने को दुःखित या निरुत्साहित मत होने दो । दुर्भाग्यवश मनुष्यों को एक- दूसरे के प्रति कठोर होने का अभ्यास पड़ गया है । अगर तुम अपना काम पूरी सच्चाई के साथ करो तो माताजी संतुष्ट होंगी और बाकी चीजों पीछे स्वयं आती रहेंगी । तुम्हें ' अ ' के चट गर्म हो जाने का ख्याल नहीं करना चाहिये । सर्वदा याद रखो कि तुम माताजी का कार्य कर रहे हो, और अगर तुम कार्य करते हुए माताजी को स्मरण कर सको तो माताजी की कृपा तुम्हारे साथ रहेगी । कार्यकर्ता के लिये यही समुचित भाव है, और यदि तुम इस भाव में कार्य करो तो शांत आत्मदान का भाव उत्पन्न होगा । १ - ३ - ११३३
माताजी के साथ आंतर संपर्क रखते हुए काम करना
तुम्हें अधिक दृढ़ता के साथ अन्तःकरण में अपने- आपको एकत्र करना होगा । यदि तुम निरंतर अपने को छितराये रखो । आंतरिक क्षेत्र से बाहर चले जाओ तो तुम साधारण बाहरी प्रकृति की तुच्छताओं तथा जिन प्रभावों की ओर बह खुली होती है उनके अंदर सर्वदा विचरण करते रहोगे । अंतर में रहना और सदा भीतर से, निरन्तर माताजी के संपर्क में रहते हुए कार्य करना सीखो ।सर्वदा और पूर्ण रूप से ऐसा करना आरंभ में कठिन हो सकता है, पर कोई १९१ यदि उसमें लगा रहे तो यह किया जा सकता है - और इसी मूल्य पर, उस दृढ़ता को सीखकर ही मनुष्य योग में सिद्धि प्राप्त कर सकता है । ५ - ६ - ११३४ *
जब बाहर चीजों अस्तव्यस्त हो जायें तब तुम्हें तुरत इस नियम पर अपने मन को जमा देना चाहिये कि बाहरी रूपों को देखकर फैसला करना उचित नहीं है - अपने भीतर माताजी की ज्योति के सामने सब कुछ रख देना चाहिये और यह विश्वास रखना चाहिये कि सब स्पष्ट हो जायेगा । माताजी कहती हैं कि यदि किसी समय तुम काम का बहुत अधिक बोझ अनुभव करो तो तुम्हें तुरंत उनसे कहना चाहिये जिससे कि वे देख सकें कि क्या किया जा सकता है । १ ६- १ - १९३३ *
कर्म में माताजी की शक्ति की ओर उद्घाटन और विश्राम की आवश्यकता
शरीर की साधारण अवस्था में अगर तुम बहुत अधिक काम करने के लिये शरीर को बाध्य करो तो प्राण-शक्ति का सहारा लेकर वह उसे कर सकता है । पर ज्यों ही काम समाप्त हो जाता है त्यों ही प्राणशक्ति हट जाती है और तब शरीर थकावट अनुभव करता है । अगर ऐसा बहुत अधिक और बहुत लम्बे समय तक किया जाये तो थकावट के कारण स्वास्थ्य और शक्ति का हास हो सकता है । तब स्वस्थ होने के लिये विश्राम की आवश्यकता होती है ।
परंतु मन और प्राण को यदि माताजी की शक्ति की ओर खुलने का अभ्यास हो जाये तो फिर वे शक्ति का सहारा प्राप्त करते हैं और यहांतक कि उससे एकदम भर भी सकते हैं -उस समय शक्ति काम करती है और पहले या पीछे शरीर कोई दबाव या थकावट नहीं अनुभव करता । परंतु उस अवस्था में भी, जबतक स्वयं शरीर भी नहीं खुलता और शक्ति को आत्मसात् करने और बनाये रखने में समर्थ नहीं होता । तबतक कर्म में बीच-बीच में पर्याप्त विश्राम करना एकदम आवश्यक है । अन्यथा, शरीर यद्यपि बहुत दीर्घ कालतक चलता रह सकता है, फिर भी अंत में उसके भंग हो जाने का खतरा बना रह सकता है । जब पूरा प्रभाव विद्यमान हो और मन तथा प्राण में अनन्य श्रद्धा-विश्वास १९२ और पुकार हो तो शरीर को बहुत लम्बे समय तक बनाये रखा जा सकता है; परंतु मन या प्राण यदि अन्य प्रभावों के द्वारा चंचल हो गये हों या जो शक्तियां माताजी की नहीं हैं उनकी ओर खुले हों तो फिर उससे एक मिली-जुली अवस्था उत्पन्न होगी और कभी तो शक्ति-सामर्थ्य मालूम होगी और कभी थकावट, निर्बलता या अस्वस्थता अथवा एक साथ ही दोनों की मिली-जुली अवस्था । अंत में, यदि केवल मन और प्राण ही नहीं, वरन् शरीर भी खुला रहे और शक्ति को आत्मसात् कर सके तो वह बिना भंग हुए कार्य के अंदर असाधारण चीजों संपन्न कर सकता है । फिर भी, उस अवस्था में भी विश्राम की आवश्यकता होती है । यही कारण है कि जिन लोगों में कर्म की प्रवृत्ति है उनसे हम आग्रह करते हैं कि वे श्रम और विश्राम के बीच समुचित समतोलता बनाये रखें । थकावट से पूर्ण मुक्ति पाना संभव है, पर वह केवल तभी आती है जब कि पार्थिव चेतना में अतिमानसिक शक्ति के पूर्ण अवतरण के द्वारा शरीर के धर्म का ही संपूर्ण रूपांतर हो जाये । *
यही बात आश्रम में शारीरिक काम करनेवालों में प्रतिदिन हुआ करती थी । कम के प्रति अनुराग रखते हुए वे अत्यधिक शक्ति और उत्साह के साथ काम करते और कुछ समय बाद जब थकावट अनुभव करते तो माताजी को पुकारते और उनमें एक प्रकार का विश्राम का बोध उत्पत्र होता तथा उसके साथ-ही- साथ या उसके बाद ही शक्ति की एक बाढ़-सी आ जाती जिससे दुगुना काम भी एकदम बिना थकावट या प्रतिक्रिया के पूरा हो जाता था । बहुतों में तो प्राण के अंदर स्वभावत: ही शक्ति के लिये पुकार थी जिससे कि वे ज्यों ही काम आरंभ करते त्यों ही शक्ति की बाढ़ को अनुभव करते और जबतक काम करना होता तबतक वह बाढ़ बनी रहती । २६ - ३ - ११३६
कर्म में प्राणशक्ति
कर्म में अनुभूत प्राणशक्ति से मत डरो । प्राणशक्ति भगवान् की एक बहुमूल्य देन है जिसके बिना कुछ भी नहीं किया जा सकता -जैसा कि माताजी ने १९३ प्रारंभ से ही सर्वदा जोर देकर कहा है; यह शक्ति इसलिये दी गयी है कि ' उनका ' (भगवान् का) काम किया जा सके । में बहुत प्रसन्न हूं कि वह वापस आ गयी है और उसके साथ प्रसन्नता और आशा का भाव भी आ गया है । ऐसा ही होना उचित था ।
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